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आंकड़ों से गरीबी हटाएं, गरीब नहीं।


अर्थशास्त्री आंकड़ों की मदद से गरीबी हटाने का दावा करते हैं। हमारे कानपुर में एक मंजू कुरील का परिवार है जो उन करोड़ों लोगों के आंकड़ों का हिस्सा है। इस परिवार के पास जमीन है, एक कच्चा मकान भी है। बैलों की जोड़ी है, दो-चार बकरियां भी हैं। बिजली का कनेक्शन, रेडियो के साथ मोबाइल भी है जिसे दस रुपये से रिचार्ज भी करवाती है। दो बेटे सरकारी स्कूल में पढ़ने भी जाते हैं। पूरा का पूरा परिवार दो बीघा जमीन में लगा रहता है। यह परिवार मनरेगा में सौ दिन भी पूरा करता है। एक बच्चा स्कूल की छुट्टियों में पलायन कर मजदूरी करने जाता है। वहां से भी कुछ न कुछ जरूर लाता है। बावजूद इसके भी इस परिवार में दोनों जून सब्जी नहीं बनती है। रोज-रोज की चिंता लगी रहती है कि कहीं से कोई अतिरिक्त मजदूरी नहीं मिली तो कल क्या होगा?
ऐसी स्थिति में इस परिवार को मनमाफिक खाना तो केवल तीज-त्योहार पर ही मिल पाता है। बीमारी भी दरवाजे पर इंतजार करती है। कर्ज पहले भी था, आज भी है और इन हालातों को देखते हुए तो इस परिवार में जो भी जन्म लेगा वो कर्ज में ही लेगा और कर्ज में ही मरेगा। यह परिवार चयनित भी है और दो रुपये किलो गेहूं भी प्राप्त करता है। कल यदि किसी कारण से यह परिवार चयनित सूची से हट जाए और इस परिवार को स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार एवं सस्ता अनाज नहीं मिले तो यह परिवार गरीबी से भूखमरी की स्थिति में आ जाएगा। आज यदि हम चाहते हैं कि मंजू कुरील जैसे परिवार की अगली पीढ़ी गरीबी से ऊपर उठे तो इसके लिए हमें सुनिश्चित करना पड़ेगा कि उस परिवार को खाना, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति हो। वरना जब भी अकाल पड़े या परिवार पर संकट आए तो यह परिवार गरीबी में पूरी तरह डूब जाएगा। मंजू कुरील का परिवार तो भाग्यशाली है जो इनका नाम चयनित सूची में आ गया। कई ऐसे परिवार है जो चयनित नहीं है और आज भी गरीबी और भूखमरी में जी रहे हैं।

योजना आयोग ने एक हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि यदि देश के किसी भी व्यक्ति को 32 रुपये प्रतिदिन मिले तो वह जीने के लिए पर्याप्त है। इस पर बवाल मचने के बाद योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया एवं ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इसे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों एवं सुविधाओं से अलग करते हुए घोषणा की कि हाल में चल रहे सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के समापन एवं विश्लेषण के बाद ही तय किया जाएगा कि किसे, कौन सी मूलभूत सुविधा का अधिकार मिलेगा। इन आंकड़ों में समस्या तब उठती है जब इस रेखा को इन मूल सुविधाओं के साथ जोड़ा जाता है।

यह केवल आंकड़ों की बात नहीं है, हर आंकडे़ के पीछे एक मंजू कुरील और उसका परिवार है जो अपनी जिंदगी जीने का प्रयास कर रहा है। गरीबी रेखा के आंकड़ों के अलावा कुछ और आंकड़े भी देश में तैयार हो रहे हैं। इन्हें भी समझने की जरूरत है। आज भारत के 48 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं और इसमें हम दुनिया के 158वें स्थान पर खड़े है। हमारे यहां शिशु मृत्यु दर एक हजार पर 52 है, इस मामले में हम 122वें स्थान पर हैं। स्वास्थ्य पर हम सकल घरेलू उत्पाद का 1.1 फीसदी ही खर्च करते हैं, इसमें हम 162वें स्थान पर है। इन सब में हम बांग्लादेश से भी काफी पीछे हैं। 32 रुपये और बच्चों के कुपोषण, शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर, स्वास्थ्य खर्चे के बीच में इसलिए सीधा रिश्ता है कि हम इन आंकड़ों से आम जनता को मूलभूत सुविधा से वंचित रखना चाहते हैं और गरीबी पर खर्चो को कम से कम करना चाहते हैं।
यदि हम आज कुछ मूलभूत सुविधाओं को सार्वभौमिक बना दें तो हम वास्तव में गरीबी से उभरने के रास्ते पर चल पड़ेंगे। भारत जैसे देश में यदि हम हर इंसान को स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा और न्यूनतम रोजगार के अवसर प्रदान कर पाएं तो यह हमारी बड़ी उपलब्धि होगी। आज देश में खाद्य सुरक्षा कानून पर बहस चल रही है। इसमें मुख्य मुद्दा है कि हम कितने लोगों को सस्ता अनाज देंगे। यदि 32 रुपये का आंकड़ा काम में लेते है तो हम अपने देश के लाखों परिवारों को सस्ते अनाज से वंचित रखेंगे। इससे यह भी स्पष्ट होगा की हमने 32 रुपये वाली बहस को कुछ ही दिनों के लिए टाला है।

इस पूरी बहस का यदि हम सार्थक परिणाम निकालना चाहते हैं तो हमें कुछ साहसिक और मानवीय कदम उठाने पड़ेंगे। गोदामों में सड़ते हुए अनाज को बांटने का साहस करना पड़ेगा और खाद्य सुरक्षा कानून के तहत सस्ते अनाज का हक सभी को देना पड़ेगा। स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे क्षेत्र पर अपना खर्च बढ़ाकर सबको शिक्षा और सबको स्वास्थ्य की सुविधा की गारंटी देनी पड़ेगी। रोजगार गारंटी में न्यूनतम मजदूरी देने का कर्तव्य निभाना पड़ेगा। तभी हमारे सर्वेक्षणों में गरीबी गिरती हुई नजर आएगी। जब तक हमारे परिवारों की कहानियों को आंकड़ों से उभारकर नहीं देखेंगे तब तक आंकड़ों की मार गरीबों पर पड़ती रहेगी।

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