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श्रमिक बस्तियों की दुर्दशा, जिम्मेदार कौन ?


कानपुर । प्रदेश के श्रमिकों को सर छुपाने की छत उपलब्ध कराने हेतु प्रदेश सरकार द्वारा 1952 में केन्द्र से सहायता प्राप्त कर औद्यौगिक आवास योजना लागू करी गयी थी । इस योजना का उद्देश्य था प्रदेश के विकास हेतु निरन्तर प्रयत्नशील श्रमिकों को कम किराये पर आवास उपलब्ध कराना,परन्तु सरकार की अनेक अन्य योजनाओं की तरह ही यह योजना भी अपने मूल उद्देश्य से भटक गयी और बसायी गयीं सभी श्रमिक बस्तियाँ आज बदहाली अवैध कब्जों और कुव्यवस्था का शिकार हैं।
ज्ञात हो कि इस योजना के अन्तर्गत प्रदेश के विभिन्न 16 नगरों में 37 श्रमिक बस्तियाँ बसायी गयीं थीं, जिनमें 30,643 घरों का निर्माण किया गया था, इनमें एक कमरे वाले कुल 24,751 मकान और दो कमरे वाले 4,836 मकान बनाये गये थे । इनका किराया काफी कम रख्खा गया था, अधिकतम किराया था 30रु प्रतिमाह । परन्तु आज सभी श्रमिक बस्तियाँ अनाधिकृत कब्जेदारी की समस्या से ग्रस्त हैं, ऐसा नहीं है कि सरकार ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया परन्तु जैसा हमेशा होता आया है इस बार भी इस सम्बन्ध में जारी किया गया शासनादेश सं03265/36-4-90-7/89 दिनांक 29,11,1990 भी मात्र एक कागज का टुकडा बन कर रह गया।
प्रदेश की औद्यौगिक राजधानी कहलाने वाले हमारे कानपुर में सबसे अधिक 18015 श्रमिक आवासों का निर्माण किया गया था,परन्तु पिछले दिनों सरकार द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण में श्रमिक बस्तियों में अनाधिकृत रहने वालों की सबसे बडी संख्या भी कानपुर में ही है, कानपुर में इस समय सरकारी आकंडों के हिसाब से इन बस्तियों में 7143 मकानों में अवैध लोग रह रहे हैं। ये बस्तियाँ अब मंहगे इलाके में हैं और श्रमिकों द्वारा भी प्रलोभनवष या अन्य कारणों से इन घरों को दूसरों को बेच दिया गया है और दिन पर दिन यहाँ अवैध रुप से रहने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है जिसका एक कारण ये भी है कि पिछले 7 वर्षो से यहाँ नियमितीकरण या आवंटन की कोई प्रक्रिया नहीं हुयी है, जबकि श्रमिक बस्तियों के कार्य हेतु श्रम विभाग द्वारा 600 कर्मचारी नियुक्त हैं।
इन श्रमिक बस्तियों में ज्यादातर घरों में भूतल पर अवैध निर्माण भी कराया गया है और घरों का व्यवसायिक उपयोग धडल्ले से हो रहा है। जो वास्तव में श्रमिक हैं और इन बस्तियों में रहने को अधिकृत है उनके घरों की हालत बेहद दयनीय है छतें कमजोर हैं, दीवारें जरजर हैं और श्रम विभाग का इस और पिछले 7 सालों से कोई ध्यान नहीं गया है। इन घरों की खस्ता हालत के चलते किसी भी दिन कोई भयानक हादसा हो सकता है।ज्ञात हो कि इन बस्तियों में रहने वाले अनाधिकृत किरायेदारों के खिलाफ ‘‘अप्रधिकृत अध्यासियों की बेदखली अधिनियम 1972 ’’ के तहत कार्यवाही पिछले 15 सालों से जारी है पर आज तक एक भी अनाधिकृत किरायेदार को निकाला नहीं जा सका है और इन अवैध निवासियों के कारण किराया वसूली पर भी दुष्प्रभाव पडा है। सरकारी आंकडों के हिसाब से इन अनाधिकृत करायेदारों पर 3 करोड 50 लाख रु किराया बाकी है, जबकि सभी मकानों पर गृहकर का भुगतान श्रम विभाग करता है जो कि तकरीबन 10 लाख रु साल होता है।
श्रमिक बस्तियों की दुर्दषा के कारण चाहे जो रहे हों पर आज यह बस्तियाँ श्रम विभाग का सफेद हाथी बनी हुयी हैं। सरकार द्वारा इनको बेचने पर विचार भी किया गया, पर इस पर आज तक अमल नहीं हो सका है। श्रम विभाग के पास न तो इतने साधन हैं और न ही अधिकारियों के पास कुछ करने की फुर्सत अतः मामला हमारे देश की तरह ही राम भरोसे चल रहा है।


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