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अपरिपक्व एवं अनावश्यक निर्णय है कॉरपोरेट घरानों का बैंकिंग में प्रवेश


कानपुर (सूरज वर्मा).
कुछ दिनों से एक खबर प्रायोजित रूप से चर्चा में है कि भारतीय रिज़र्व बैंक की एक वर्किंग कमेटी ने सुझाव दिया है कि औद्योगिक घरानों को भी बैंकिंग लाइसेंस दिया जाए। मतलब अब टाटा, अम्बानी, अडानी और ऐसे ही अनेक बड़े सेठ अपने अपने बैंक खोल सकते हैं। यही नहीं रिज़र्व बैंक के इस वर्किंग ग्रुप ने जो सुझाव दिए हैं उसको यदि मान लिए गए तो महिंद्रा समूह, बजाज फाइनेंस, एल एन टी फिन सर्विसेज जैसी कंपनियां सीधे बैंक में तब्दील हो सकेंगी यदि उन्हें 10 वर्ष का अनुभव हो और कुल संपत्ति 50 हज़ार करोड़ रुपये से ज्यादा हो। 
 
 
एआईबीओसी कानपुर के जॉइंट सेक्रेटरी सौरभ यादव ने बताया कि ये कौन सा वर्किंग ग्रुप है ये अभी शोध का विषय है क्योंकि आरबीआई गवर्नर ने इसे अलग वर्किंग ग्रुप बताया है जिसका सीधा संबंध आरबीआई से नहीं है। इस रिपोर्ट पर रिज़र्व बैंक ने 15 जनवरी तक सुझाव मांगे हैं उसके बाद बैंक अपना फैसला सुनाएगा। खबर आने के बाद ही आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के अलावा अंतरष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ने भी इस प्रकार के प्रस्ताव पर सवाल उठा दिए है। रघुराम राजन का कहना है कि जिन घरानों को हमेशा पूँजी की जरूरत रहती है यदि वो ही बैंक के मालिक हो गए तो तो वो कर्ज लेकर कभी ना लौटने की सोच ले तो उन्हें पकड़ेगा कौन। हालांकि यदि रेगुलेटर सही अर्थों में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष हो तो सही गलत की पहचान संभव है। किंतु रेगुलेटर सही अर्थों में आज़ाद होना चाहिए। पीएमसी बैंक और यस बैंक आदि में लंबे समय तक गड़बड़ियों को छुपाया गया जिससे रेगुलेटर पर भी प्रश्न चिन्ह लगा है। 
 
 
 
उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार दशकों पुराने लक्ष्मी विकास बैंक का एक विदेशी बैंक में विलय किया गया उस पर बीजेपी के सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने भी गंभीर सवाल उठाए हैं। एआईबीओसी के पूर्व महासचिव थॉमस फ्रैंको याद दिलाते हैं कि 1992 के उदारीकरण दौर से ही बैंकिंग लाइसेंस की शर्तों में ढील देने की शुरुवात आरबीआई द्वारा की गई और जिन 10 बैंकों को लाइसेंस दिया गया उनमें से 4 आज अस्तित्व में नहीं हैं। विकसित देशों में से कई देशों में औद्योगिक घरानों के बैंकों में हिस्सेदारी पूर्णतया प्रतिबंधित है। बैंको का राष्ट्रीयकरण जिस उद्देश्य से किया गया था राष्ट्रीयकृत बैंकों ने उस उद्देश्य को पूरा करने में सफलता पाई है और देश के गरीब किसान व आम जनता तक बैंकिंग सेवाओं को पहुंचाया। हालांकि सरकारी बैंक एनपीए की समस्या से जूझ रहे हैं लेकिन उस एनपीए का अधिकांश भाग कॉर्पोरेट को दिया गया लोन ही है। कर्ज में डूबे यदि ऐसे कॉरपोरेट्स को बैंक का मालिक बना दिया गया तो उनके लिए भ्रटाचार और आसान हो जाएगा। 
 
 
 
रघुराम राजन और विरल आचार्य का यह भी तर्क है कि इससे कुछ औद्योगिक घरानों की ताकत अत्यधिक बढ़ जाएगी और पैसे की ताकत से वो राजनीतिक फैसलों पर भी गंभीर असर डालने लगेंगे। कुछ साल पहले ही 2 उद्योगपति जो बैंक लाइसेंस के लिए बहुत आगे बढ़ चुके थे आज दिवालिया हो चुके हैं तो प्रश्न उठता है ऐसे परिस्थिति में आम जनता का क्या होगा। क्योंकि अंत मे खाताधारकों की मदद टैक्स के पैसे से ही की जाएगी। अतिमहत्वपूर्ण है कि आजादी के बाद से लेकर आज तक कोई भी सरकारी बैंक नहीं डूबा है। इसलिए ये बेहद जरूरी हो जाता है कि न केवल बैंक के कर्मचारी, अफसर एवं बैंक से जुड़े लोग बल्कि खाताधारक एवं देश के सभी लोग इस मामले की गंभीरता को समझें और सरकार पर दबाव बनाएं की इस तरह के फैसले जनता के हित में नहीं है। 
 
 

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