कुंभ मेला - पुण्य प्राप्ति हेतु करें कल्पवास
इलाहाबाद। सांसारिक सुख-दुख, लाभ-हानि, माया-मोह से विरत हो परलोक को संवारने के लिये ही साधु सन्त एवं आम मनुष्य कुम्भ मेले में
स्नान हेतु जाते हैं परन्तु कुंभ
मेले में मीडिया की चकाचौंध, पुलिसिया तामझाम और बाबाओं के बैण्ड बाजे के चलते आज
हो रहा है तो सिर्फ पैसे का दिखावा।
पहले जो संन्यासी होते थे, वो चुपचाप आते थे, कहीं मड़ैया बनाई और बैठ गए। अब तो बैंड बाजा़ में ज्यादा खर्च-वर्च है, दिखावा बहुत हो गया है, बाबाजी लोग गाड़ी और पैसा दिखाते हैं।
पहले जो संन्यासी होते थे, वो चुपचाप आते थे, कहीं मड़ैया बनाई और बैठ गए। अब तो बैंड बाजा़ में ज्यादा खर्च-वर्च है, दिखावा बहुत हो गया है, बाबाजी लोग गाड़ी और पैसा दिखाते हैं।
कुम्भ का असली लाभ तो तब है जब गृहस्थ
जीवन से दूर रह कर ईश्वर को पाने का जतन हो, साधू-संतों के सान्निध्य में भजन-कीर्तन,
यज्ञ-हवन और दान-पुण्य हो। संयम-साधना पूर्वक स्नान ध्यान किया जाये।
यह प्रक्रिया कहलाती है कल्पवास। कुंभ
मेले में कल्पवास की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। कल्पवास के दौरान गृहस्थों को शुद्ध रेशमी
अथवा ऊनी, श्वेत अथवा पीत वस्त्र धारण करने की सलाह
शास्त्र देते हैं। कल्पवास सभी स्त्री एवं पुरुष बिना किसी भेदभाव के कर सकते हैं। विवाहित गृहस्थों
के लिए नियम है कि पति-पत्नी दोनों एक साथ कल्पवास करें। विधवा स्त्रियां अकेले
कल्पवास कर सकती हैं। शास्त्रों के अनुसार इस प्रकार का आचरण कर मनुष्य अपने
अंत:करण एवं शरीर दोनों का कायाकल्प कर सकता है। एक कल्पवास का पूर्ण फल मनुष्य को जन्म-मरण के बंधन से मुक्त कर
कल्पवासी के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
पौराणिक मान्यता है कि एक ‘कल्प’ कलयुग-सतयुग, द्वापर-त्रेता चारों युगों की अवधि होती है और कुंभ मेले में नियमपूर्वक संपन्न एक कल्पवास का फल
चारों युगों में किये तप, ध्यान, दान
से अर्जित पुण्य फल के बराबर होता है। हालांकि
तमाम समकालीन विद्वानों का मत है कि ‘कल्पवास’ का अर्थ ‘कायाशोधन’ होता है, जिसे
कायाकल्प भी कहा जा सकता है। संगम तट पर महीने भर स्नान-ध्यान और दान करने के उपरांत साधक का
कायाशोधन या कायाकल्प हो जाता है, जो कल्पवास कहलाता है। कल्पवास स्वेच्छा से
लिया गया एक कठोर संकल्प है। इसके प्रमुख नियम हैं दिन में एक बार स्वयं पकाया हुआ
स्वल्पाहार अथवा बिना पकाया हुआ फल आदि का
सेवन करना। ताकि भोजन पकाने के चलते साधक हरि आराधना से विमुख न हो जाये। प्रमुख
पर्वो पर उपवास रखना। दिन भर में तीन बार स्नान करना। त्रिकाल संध्या वंदन, भूमि शयन और इंद्रिय शमन, ब्रम्हाचर्य, जप, हवन, देवार्चन, अतिथि
देव सत्कार, गो-विप्र संन्यासी सेवा, सत्संग करना। समान्यत: गृहस्थों के लिए दिन में तीन बार गंगा स्नान को श्रेयस्कर माना गया है। विरक्त साधू और संन्यासी भस्म स्नान अथवा धूलि स्नान करके भी स्वच्छ रह सकते हैं। कल्पवास गृहस्थ और
संन्यास ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुष सभी कर सकते हैं। लेकिन
उनका कल्पवास तभी पूर्ण होता है,
जब वे सभी नियमों का पालन
पूर्ण आस्था और श्रद्धा के साथ करेंगे।