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क्या लोकतंत्र की हत्या करना चाहती है मोदी सरकार ??

कानपुर 6 अगस्‍त 2016. एैसा प्रतीत होता है कि केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा की मोदी सरकार लोकतंत्र की हत्या करना चाहती है। वो भी देश के चंद बड़े व काॅरपोरेट मीडिया हाउसों के इशारे पर। दरअसल मोदी सरकार द्वारा हाल में ही लागू की गई नई डीएवीपी नीति से ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। इसी के विरोध में आज नरोना चौराहे पर पत्रकारों ने सभा की और डीएम को डीएवीपी नीति वापस लेने के लिये ज्ञापन दिया।

डीएवीपी, यानि कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का ‘डायरेक्टोरेट आॅफ एडवर्टाइजिंग एंड विजुअल पब्लिसिटी’ की नई पाॅलिसी, जिसके अंतर्गत समाचार पत्रों, पत्र पत्रिकाओं को सरकारी सहायता व विज्ञापन मिलता है। गौरतलब है कि बेहद कम या नगण्य पूंजी वाले छोटे एवं मझोले समाचार पत्रों को बाजार या आम जनता से विज्ञापन नहीं मिलता है। फिर भी डेमोके्रेटिक सिस्टम का एक महत्वपूर्ण अंग होने के कारण सरकारी विज्ञापन एवं डीएवीपी द्वारा दूसरी छोटी-मोटी सरकारी सब्सिडी से छोटे अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशकों, संपादकों को इन्हें छापने का खर्च भर मिलता रहता है। लेकिन अब डीएवीपी की नई नीति ऐसी बना दी गई है कि कम पूंजी व छोटे या मझोले समाचार पत्र, पत्र-पत्रिकाओं के लिये सरकारी विज्ञापन या सहायता पाना मुश्किल ही नहीं असंभव हो जायेगा।

नई डीएवीपी नीति में ग्रेड व प्वाइंट सिस्टम रख दिया गया है। जैसे कि आपके पास प्रिंटिंग प्रेस है तो 10 प्वाइंट, कर्मचारियों के पीएफ अंशदान के 25 अंक रखे गये है, जो कि छोटे व लघु समाचारपत्र स्वामियों, मुद्रकों, प्रकाशकों व संपादकों की नजर से देखें तो हास्यास्पद है। अधिकांश तो अधिकतम 3 से 5 कर्मचारियों से काम चलाते हैं, वो भी रेगुलर नहीं होते हैं। और पीएफ अंशदान का तो खाता ही 20 इंप्लाॅइज के होने पर खुलता है। वहीं 25 हजार से अधिक प्रसार संख्या वालों के लिये एबीसी यानि आॅडिट ब्यूरो आॅफ सर्कुलेशन या आरएनआई का प्रमाणपत्र लेना अनिवार्य कर दिया गया है। वो भी 15 दिन के अंदर। फिर समाचार पत्रों की पेजों की संख्या के 20 अंक निर्धारित कर दिये गये हैं। वहीं प्रसार संख्या के आधार पर प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया को फीस देने की अनिवार्यता कर दी गई है। इसके भी 10 नंबर दिये जायेंगे। जबकि हर प्रदेश और जिले में पत्रकारों के अपने खुद के स्थानीय संगठन काम कर रहे हैं, जो उनकी समस्याओं को सुलझाते हैं। पत्रकारों की कितनी समस्याओं में प्रेस काउंसिल आगे आता है, ये तो सभी सभी जानते हैं, फिर फीस की अनिवार्यता काहे की? फिर सरकारी विज्ञापन पाने के लिये 100 में से कुल 45 अंक पाना जरूरी है। और वो भी ऐसी शर्तें पूरी करके जिन्हें करना छोटे व मझोले अखबार संचालकों के बस में नहीं है।

इससे बड़े काॅरपोरेट घरानों द्वारा चलाये जा रहे मीडिया हाउस व अखबार अकेले ही पूरी मलाई चट कर सकेंगे। करोड़ों का सरकारी विज्ञापन फंड हर साल उन्हीं कुछ मीडिया हाउसों के बीच बंट जायेगा। सरकार को भी अपने फेवर की ही खबरें प्रकाशित करने के लिये बहुत कम मीडिया हाउसों को कंट्रोल करना पड़ेगा। तो कुल मिलाकर सब सोची-समझी साजिश है।

फिर कौन उठायेगा असल मुद्दे और समस्यायें?
तो कुल मिलाकर ये सारी शर्तें पूरी नहीं कर पाने पर छोटे अखबार, पत्र-पत्रिकायें सरकारी सहायता, जो थोड़ी बहुत मिलती थी, नहीं पा सकेंगे और बंद हो जायेंगे। असली और सच खबरें कभी जनता के सामने नहीं आ पायेंगी। गांव-देहात, मजरों-कस्बों की स्थानीय महत्वपूर्ण खबरें व मुद्दे प्रकाशित ही नहीं हो पायेंगे। क्योंकि बड़े मीडिया हाउसों के बड़े शहरों में स्थित आॅफिस वहां पहुंचते नहीं, फिर उनकों तो केवल बड़े लोगों की चाटृकारिता से मतलब है। वो केवल मुनाफा कमाने के लिये बैठे हैं। गरीबों के बीच, बस्तियों, गांव, मजरों, कस्बों और अंदरूनी इलाकों में तो इन्हीं छोटे समाचारपत्रों की पहुंच है। वही तो हैं असल भारतीय जनता की आवाज उठाने वाले।

जनता की आवाज को खामोश करने की खतरनाक साजिश?
ये नीर्ति अिभव्यक्ति की आजादी पर आजादी के बाद से अब तक का सबसे बड़ा तकनीकी कुठाराघात है। इसे चुनावों में फाइनेंस करने वाले, कुछ एक पाॅलिटीशियंस के गुण गाने वाले बड़े मीडिया हाउसों व कारपोरेट घरानों के अखबारों के दबाव में बनाई नीति कहा जा रहा है। जिसका एकमात्र उद्देश्य है छोटे व मझोले समाचारपत्रों को खत्म और बंद करना। क्योंकि वो ‘छोटे’ सच छापते हैं। जनता को असलियत बताते हैं। वो सच और असलियत जो बड़े समाचारपत्र और मीडिया हाउसेज कभी बताते या छापते नहीं। उसे अपने हितों के लिये जनता के सामने आने देना नहीं चाहते। कुल मिलाकर नई डीएवीपी नीति पूरी तरह ‘अलोकतांत्रिक’ है।

जर्नलिस्ट प्रोटेक्शन एक्ट तो छोड़िये, हत्या पर उतारू है सरकार -
देश भर में इन्हीं सच लिखने वाले पत्रकारों की सरेआम हत्‍या की जा रही है। देश भर में जगह-जगह उन पर हमले हो रहे हैं। कलमकारों से सरेआम मारपीट और अभद्रता की जाती है। सच उजागर करने पर दंबंगों, गुडों और यहां तक कि राजनेताओं द्वारा अक्सर जान-माल की धमकियां दी जाती हैं। ऐसे हालात में सरकार से अमेरिका और यूरोप की तर्ज पर ‘जर्नलिस्ट प्रोटेक्शन एक्ट बनाकर’ पत्रकारों को सुरक्षा देने की मांग की गई थी। लेकिन उसके बजाये मिला क्या...? नई डीएवीपी पाॅलिसी के रूप में एक हत्यारी नीति.

कानपुर में पिछले ही दिनों नई डीएवीपी नीति के विरोध में श्यामनगर में प्रकाशकों एवं संपादकों की एक महत्वपूर्ण बैठक आयोजित हुई। दैनिक परिक्रमा विचारधारा और कानपुर न्यूज क्लब के संपदाक व प्रकाशक अभय त्रिपाठी ने प्रकाशकों-संपादकों की इस बैठक को लीड किया। बैठक में कानपुर के सैकड़ों संपादकों व प्रकाशकों के साथ डीएवीपी की काली नीति के विरोध की रूपरेखा तैयार की गई, वहीं सूबे की राजधानी लखनऊ व राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में नीति के खिलाफ आंदोलनरत प्रकाशकों के साथ समन्वय पर चर्चा की गई। और काली डीएवीपी नीति को वापस लिये जाने तक कड़ा विरोध करने का निर्णय लिया गया। इसी के तहत आज सुबह 11 बजे कानपुर के नरोना चौराहे पर स्व. गणेेश शंकर विद्यार्थी जी की प्रतिमा पर माल्यापर्ण एवं लघु सभा की गई। इसके पश्चात कलेक्ट्रेट में कानपुर के डीएम को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार के नाम काली डीएवीपी नीति को वापस करने के लिये ज्ञापन दिया गया।


बैठक में कानपुर के प्रमुख समाचारपत्र-पत्रिकाओं टीम वर्क के संपादक मयंक शुक्ला, अभिकथन के संपादक नीरज तिवारी, शहर दायरा न्यूज के संपादक अभिषेक त्रिपाठी एवं प्रबंध संपादक विकास अवस्थी, नगर संवाद के संपादक राघवेंद्र चौहान, गंगा गोमती टाइम्स के संपादक डाॅ. मनीष त्रिपाठी, स्वैक्षिक दुनिया के राजीव मिश्रा, उद्योग नगरी टाइम्स के फैसल हयात और हिमांशु वर्मा, हाई टाइम ब्यूरो चीफ अजय त्रिपाठी, बीएनआई न्यूज के ब्रह्म किशोर अवस्थी, पवन प्रहार के संपादक दीपक शर्मा सहित बड़ी संख्या में प्रकाशक, संपादक व पत्रकार मौजूद रहे। 

एक सवाल:- क्या लोकतंत्र की हत्या करना चाहती है मोदी सरकार..?