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यूपी में चुनावी शतरंज की बिसात पर, राजनीति के प्यादे बिछना शुरू


कानपुर 30 जून 2016 (मोहम्‍मद नदीम). बरसाती मेंढक की तरह से नेताओं की सरगर्मी से इस बात का अहसास तो हो गया है कि उत्तर प्रदेश के अगले चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं हैं, हर पार्टी अपने-अपने पैंतरे अपना कर सत्ता हासिल करना चाहती है। उत्तर प्रदेश में चार प्रमुख राजनैतिक दलों के अलावा कई ऐसी पार्टियां है जो जीत की ओर अग्रसर किसी भी पार्टी का समीकरण बिगाड़ सकती हैं।

प्रदेश में सबसे मजबूत चार पार्टियां हैं जिसमें प्रमुख सपा है जो अपनी जीत को पुनः दोहराना चाहेगी, दूसरी है बसपा जो अपनी खोई हुई ताक़त दोबारा पाने की हर जुगत लगाएगी। तीसरी पार्टी भाजपा जो सन् 2000 के बाद से यूपी में जीत से वंचित है और अपने पूरे बाहुबल के साथ सत्ता हासिल करने की फ़िराक में लगी हुई है। उसके बाद नंबर आता है देश की सबसे बड़ी पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस का जो 1988 के बाद से अपने खोये हुए वर्चस्व को पुनः हासिल करने के लिए हर सम्भव कोशिश में लगी हुई है।  इन चारों बाहुबली पार्टियों के अलावा भी उत्तर प्रदेश में कई ऐसी पार्टियां है जो जीत की ओर अग्रसर किसी भी पार्टी का समीकरण बिगाड़ सकती हैं।

छोटे दल किसी को भी समर्थन देकर पासा पलट सकते है -
सत्ता में होने की वजह से और अपने पाँच साल के विकास कार्यो की वजह से सपा खुद को 2017 के चुनाव की रेस में सबसे प्रबल दावेदार माने हुए है, लेकिन जिन मुस्लिम वोटरों के दम पर वो खुद को रेस में सबसे आगे समझ रही है उन वोटरों पर ओवैशी ने सेंध लगाने का काम शुरू कर दिया है। इसकी झलक ओवैशी द्वारा प्रदेश में की गई इफ्तार पार्टी में देखी जा सकती है। मुस्लिमों का ओवैसी प्रेम देखकर सपा के दिग्गजों की नींद उड़ना स्वाभाविक है, यही वजह थी सपा मुखिया मुलायम सिंह के कौमी एकता दल के मुखिया मुख्तार अंसारी से हाथ मिलाने की लेकिन पुत्र माननीय अखिलेश की नाराज़गी को देखते हुए उन्हें मुख्तार अंसारी से हाथ खींचने पड़े। कौमी एकता दल से दूरी बनाने के बाद सपा को फायदा होगा या नुकसान, ये तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा। विपक्षी पार्टी में अगर सबसे ऊपर किसी का नाम है तो वो है बसपा जो दलितों और जातीय समीकरण के आधार पर चुनाव लड़ने के लिये जानी जाती है और इन्हीं समीकरणों के साथ उसके जनता के बीच जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। फिलहाल तो बसपा के दिग्गज कहे जाने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य के इस्तीफे की वजह से पूरे उत्तर प्रदेश मे हलचल मची हुई है और बसपा पार्टी को आने वाले चुनाव में भारी क्षति होने सम्भावना दिख रही है। लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा है क्योंकि उन्हें पता है बसपा की नइया अकेले बहन जी ही पार करवा सकती हैं। पिछले चार बार वो अपने दम ही उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर विराजमान हो चुकी हैं, आज भी लोग प्रशासन की नाक में नकेल डालने और अच्छे शासन के लिए मायावती को याद करते हैं। यही वजह है कि जो सम्मान जनता का मायावती के प्रति है वो किसी अन्य नेता के लिये नहीं है।

तीसरी पार्टी के रूप में भाजपा उत्तर प्रदेश में अपने खोई हुई प्रतिष्ठा को  पाने के लिए हर संभव कोशिश में लगी हुई है केंद्र में मोदी मन्त्र के दम पर विजय पताका लहराकर बुलंद हौसले के साथ अब वही मोदी मन्त्र उत्तर प्रदेश में भी फूंकने की तैयारी के साथ भाजपा चुनावी मैदान में उतर चुकी है और यूपी की सत्ता को अपने पाले में लाने के प्रयास में लगी हुई है। लेकिन राम मुद्दे की चमक फीकी पड़ जाने की वजह से भाजपा का यूपी में सत्ता हासिल करना आसान नहीं लग रहा है। उत्तर प्रदेश की अव्वल पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस आज अपनी गिरती हुई शाख की वजह से काफी परेशान है इसीलिए वो अपने सबसे मजबूत ब्रह्मास्त्र मुस्लिम और ब्राहम्ण वोटरों को रिझाने की भरसक कोशिश कर रही है तथा अपनी चाल को आगे बढ़ाते हुए उसने गुलाम नबी आज़ाद को उत्तर प्रदेश का प्रभारी भी नियुक्त कर दिया है। सूत्रों के अनुसार शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने की योजना बनाई जा रही है। अब देखना ये है कि कांग्रेस पार्टी की फीकी पड़ी चमक शीला दीक्षित और गुलाम नबी आज़ाद जैसे दिग्गज क्या वापस ला पाएंगे। ये सब बातें तो चुनावी घमासान के बाद ही सामने आएंगी। किसकी होगी जीत किसकी होगी मिट्टी पलीत, कौन देगा शह किसकी होगी मात ये सारी बातें समय का कालचक्र अपने भीतर छुपाये हुए है। बहरहाल उत्तर प्रदेश का ये चुनाव किसी महासंग्राम से कम नहीं कहलायेगा जिसमें छल कपट, धोखा, असभ्य भाषा और अभद्रता होना कोई बड़ी बात नहीं होगी।