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खुलासा विशेष - समाज सेविका उज़्मा सोलंकी के सहयोग से मिल गई सरफ़राज़ को मंज़िल

कानपुर 10 दिसम्‍बर 2015 (तारिक अाज़मी). एक कलमकार के अंदर एक बहुत ही नाज़ुक दिल होता है। उस दिल की आवाज़ को वो कलमकार कागज़ों पर उड़ेलता है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ आज से लगभग 8 माह पहले हुआ था जब मैंने कानपुर की सरजमीं पर एक लगभग 14 साल के बच्चे को रिक्शा चलाते देखा था। बातचीत में पता चला कि हालात ने बच्चे से उसका बचपन छीनकर उसको रिक्शा खींचने को मजबूर कर दिया था। उसके पिता एक सड़क दुर्घटना में गुज़र गये थे, घर में तीन बहनों का अकेला भाई था वो सरफ़राज़।
सरफ़राज़ की मज़बूरी देख कर मैंने उसके लिए अपने कलम के आँसू बहाये थे। "काश कोई लौटा देता सरफ़राज़ का बचपन"। इस एक स्टोरी के बाद मैंने अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली थी और लगभग सरफ़राज़ को भूल चूका था। कहीं न कहीं दिमाग में था कि अब सरफ़राज़ का कुछ भला हुआ होगा। वो ईद की सुबह मुझको अभी भी याद है जब मैं नमाज़ पढ़ कर आया। अपने घर के बच्चों को ईद की खुशियां मनाते हंसते खेलते देख रहा था। बच्चों को खुश देख अपनी जीत महसूस होती है वैसे ही अनुभूति में मैं सराबोर था। अचानक मेरे एक छोटे भाई जैसे सहकर्मी ने कानपुर से एक फ़ोटो भेजी और कहा कि भाई इसके लिए कुछ हो सकता है। बहुत ही अनमने ढंग से मैंने उस फ़ोटो को डाउनलोड किया। जैसे ही वो फ़ोटो खुली ऐसा लगा जैसे एक नाचते हुये मोर को किसी ने उसका पैर दिखा दिया हो। लगभग मैं एक सदमे में था। ये फ़ोटो सरफ़राज़ का था। उस बच्चे को ईद के दिन भी रिक्शा खींचना पड़ा था। जब इसकी बस्ती के सभी बच्चे खेल रहे होंगे तब वह सवारियां ढूंढ रहा था। मैं लगभग रुवांस सा हो गया था। एक कलमकार हूं अपनी औकात और अपना काम मुझको भली भांति पता था। मैंने उस दिन फिर अपनी कलम का आंसू बहाया। "कैसी रही होगी मेरे सरफ़राज़ की ईद"। लफ़्ज़ों में शायद अपनी तड़प को दिखा भी नहीं पाया था। कुछ दिनों बाद मैंने फैसला किया। कोई कुछ कर सके न कर सके मगर मैं ज़रूर करूँगा अपने सरफ़राज़ के लिए। लगभग एक माह बाद मैं सरफ़राज़ से मिलने कानपुर पहुंच गया। उसकी तलाश में सुबह शाम घण्टाघर और बड़े चौराहा खड़ा रहने लगा। इस बीच मेरे कई सुधि पाठकों का सन्देश मेरे लिए आया। लगभग 40-50 लोग सरफ़राज़ की मदद करना चाहते थे। मगर मेरी तलाश सरफ़राज़ के लिए पूरी नहीं हो पा रही थी। सभी सन्देश देने वालों को इसके मिलने की जगह बता देता।

वक्त गुज़रता गया। मैं बार बार कानपुर जाता अपने सरफ़राज़ की खोज में। आखिर मैं 21 नवम्बर को कानपुर आया। ये दृढ संकल्प मन में लिए की सरफ़राज़ की तलाश जब तक मैं पूरी नहीं कर लूंगा वापस नहीं जाऊंगा। उसकी तलाश में मैं सारा दिन घण्टाघर और बड़े चौराहे की ख़ाक छानता रहता। नतीजा कुछ नहीं निकल रहा था। 2 दिसंबर की सुबह मुझको एक आस जगी। एक रिक्शे वाले ने बताया उसका घर। पता लेकर मैं नई सड़क के एक इलाके में पहुंचा काफी तलाश के बाद सरफ़राज़ का पता चला। मालूम चला कि वो अपने परिवार के साथ जाजमऊ में रहता है। उसका जाजमऊ का पता लेकर मैं 3 दिसंबर की सुबह 11 बजे जाजमऊ पहुचा। एक छोटी सी जनरल स्टोर की दूकान पर मुझको सरफ़राज़ दुकानदारी करता मिल गया। मुझसे सिर्फ एक बार मिला सरफ़राज़ मुझको देखते ही पहचान गया तुरंत दुकान के अंदर बुलाया, मुझको अपने पडोसी से कुर्सी मांग के लाकर बैठाया। मैं थोडा व्याकुल था। मैं इस परिवर्तन के बारे में जानना चाहता था। आखिर मुझको पूछना ही पड़ा। यहाँ तक कैसे पहुचे। उसने बताया कि "मेरी स्टोरी पढ़ने के बाद एक दिन अप्पी मेरे पास आई और मेरे रिक्शे को जमा करवा कर मुझको अपनी गाडी से घर ले गई। घर पर मेरे सभी घर वालों से मिली मेरी माँ से मेरी बहनों से। फिर दूसरे दिन सुबह सुबह उनकी गाडी आई और हम लोगों को यहाँ ले आई। अप्पी ने ये दूकान करवाई है। मेरी बहनों का नाम सेन बालिका में लिखवाया है। मेरा भी नाम लिखवा दी हैं। अब हम झोपड़ी ने नहीं रहते हैं। यहीं अप्पी ने 2 कमरों का मकान दिया। अब हम रोज़ स्कूल जाते हैं। जब हम स्कूल जाते हैं अम्मी दूकान संभालती हैं। स्कूल से आने के बाद मैं। भैया आपकी लिखी ख़बर ने ये सब किया है। वर्ना मैं कभी यहाँ तक ना पहुंच पाता"। इतना कहकर वो खामोश हो गया। मेरे दिल को एक सुकून तो था मगर एक अजीब खलबली थी। आखिर ये "अप्पी" कौन है। मैंने आखिर पूछा ये तुम्हारी जो "अप्पी" है वो आती जाती है या नहीं। उसने कहा हां भाई आती हैं। अभी कुछ देर बाद आएगीं। मैं उस शख्सियत से मिलना चाहता था देखना चाहता था आखिर ये समाज सेवा करने वाली महिला है कौन? मैं अभी सोच ही रहा था कि दुकान के सामने एक बड़ी गाडी आकर रूकती है। उसमें से एक महिला निकलती है। उम्र लगभग 26-28 साल। चेहरे पर एक तेज़, एक संतुष्टि, सलीकेदार सफ़ेद कपडे उस शख्सियत को और भी निखार रहे थे। मैं सोच रहा था कि मैंने इनको कहीं देखा है। तभी वो दूकान के पास आई और उनकी नज़र मुझपर पड़ी मुझको देखते ही जैसे वो पहचान गई हो। शब्द मीठे आवाज़ से और मिठास घोल गए "अरे तारिक़ भाई आप कब आये।" मैं खुद अचंभित था तब तक मुझको याद आ गया ओह ये उज़्मा सोलंकी है। कानपुर की समाज सेविका। लगभग 2 साल बाद मिल रहा था मैं इनसे। इन्होंने भी मुझसे सरफ़राज़ का पता पूछा था। इसके बाद उज़्मा सोलंकी के घर चलकर चाय पीने के निवेदन को मैं टाल नहीं सका। श्रीमती सोलंकी के घर पहुंच कर लान में हम सब बैठे। चाय हो बातचीत न हो ये भला कैसे मुमकिन है। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ दुनिया जहान घूमने के बाद मैंने उसको लाकर रोका सरफ़राज़ पर। जो कुछ उज़्मा सोलंकी ने बताया शायद मेरी लेखनी की एक बड़ी उपलब्धि रही है। 
 
उज़्मा सोलंकी ने बताया " भाई मैं आपके आर्टिकल्स पहले भी पढ़ती रही हूं। अच्छा लगता है पढ़ना। ईद के रोज़ आपका मैंने आर्टिकल पढ़ा। दिल भर आया कि आज जब हम सब खुशिया मना रहे हैं उस दिन एक मासूम इतनी मेहनत कर रहा है। बस मैंने भी अहद कर लिया कि इस बच्चे के लिए कुछ करना है। बस इसी सोच के साथ मैं ढूंढने लगी इस बच्चे को। आखिर मिल ही गया। जिस वक्त मिला इसको देख कर आँखे भर आई थी। इस मासूम बच्चे के रिक्शे पर 3 मुश्तण्डे लोग बैठे थे। ये मासूम रिक्शा पैदल खींच रहा था। ये मंज़र देख आँखों में आंसू आ गया। फिर मैं इसके घर गई इसकी वालिदा से मिली फिर इनको यहाँ ले आई। पूरा परिवार बहुत खुद्दार है। कोई मदद नहीं ले रहे थे। ये दूकान और रहने की जगह, बच्चों की पढाई इन सबके लिए मैंने बच्चों का मुस्तकबिल का वास्ता दिया। तब तैयार हुये हैं। आज अल्लाह का करम है परिवार अपने पैरों पर खड़ा है। सब अल्लाह की मर्ज़ी है भाई। चाय ख़त्म हो चुकी थी। मैने उनसे रुखसत ली। सरफ़राज़ को अपना नंबर दिया और कोई दिक्कत होने पर फ़ोन करने को कहा। वहां से मैं बाइक से निकल पड़ा। मेरी निगाहों में अभी भी एक पुराना मंज़र घूम रहा था। ये वही उज़्मा सोलंकी थी। एक वक्त था ये महिला खुद के अस्तित्व की एक पारिवारिक लड़ाई से जूझ रही एक गृहणी थी। समाजसेवा से कोई मतलब नहीं सिर्फ घर-गृहस्थी से मतलब। समय ने कुछ ऐसा कड़वा आईना दिखाया कि इस महिला को समाजसेवा में आना पड़ा। उज़्मा के समाजसेवा में आने की क्या सोच हुई मैं भी नहीं जानता था। दिल में उहापोह की स्थिति में मैंने आखिर उज़्मा को फ़ोन करके पूछ ही लिया। मेरा सवाल सुनकर बेसाफ़्ता वो हंस पड़ी। हंस कर कहा "भाई क्या आप भी। बस भाई जब मैं मुश्किलों के दौर से गुज़र रही थी। जब अपने पति के उत्पीड़न की मैं शिकार होकर इन्साफ पाने के लिए कोर्ट कचहरी और अधिकारियों के कार्यालय का चक्कर लगा रही थी। खुद एक सम्पन्न परिवार से होते हुये भी मुझको इन्साफ पाने के लिए जूझना पड़ा। इस दौरान कचहरी में अधिकारियों के कार्यालय पर काफी लोग ऐसे मिले जिनमें महिलाओं की अधिकता थी जिनका कोई साथ देने वाला नहीं। कोई मदद करने वाला नहीं। कोई सुनने वाला नहीं। बस वहीं से एक सोच बदल गई। क्या करुँगी दौलत लेकर किसके लिए जमा करके रखूं। बस यहीं से समाजसेवा करने में दिल को तसल्ली मिलती है। एक स्कूल खोलने की तमन्ना और है। जिसमें सिर्फ गरीब के बच्चे पढ़ेंगे, बस ये तमन्ना है कि गरीब के बच्चे भी इंग्लिश मीडियम में पढ़े। अब देखिये अल्लाह कब ये मुराद पूरी करता है। आज एक तसल्ली है। आज सरफ़राज़ को उसका बचपन वापस मिल गया है। आज सरफ़राज़ खुश है। आज सरफ़राज़ के चेहरे से ख़ुशी झलक रही है। आज जितना सरफ़राज़ को खुश देखा उतना मेरा दिल सुकून महसूस किया। उज़्मा सोलंकी के समाज सेवा को नमन करने का मन किया मगर मन का मसोसना भी कुछ होता है जी आज महसूस कर रहा हूं। ये वही डर है जो अपनों से होती। बस इतना डर कि कहीं अपने साथी ही पीत पत्रकारिता का ठप्पा न लगा दे।