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छत्तीसगढ़ - मानव तस्करी की रोकथाम में फिसड्डी साबित हुई सरकार, 5 साल में गायब हुये 33 हजार

छत्तीसगढ़ 18 सितम्‍बर 2015 (जावेद अख्तर). पिछले पांच सालों में छत्तीसगढ़ प्रदेश में 14 हजार से ज्यादा बच्चे और 19 हजार से ज्यादा लड़कियां और महिलाएं गायब हो चुकी हैं। यह राज्य सरकार की ओर से विधानसभा में पेश आंकड़े हैं। इनसे समझा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में मानव तस्करी रूकने का नाम नहीं ले रही है बल्कि साल दर साल आंकड़ों में जबरदस्त इजाफा हुआ है। छत्तीसगढ़ देश उन पांच राज्यों में शामिल है जहां पर बड़े पैमाने पर मानव तस्करी की जा रही है।

सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान के बाद व इस भयावह स्थिति के बावजूद राज्य सरकार का रूख मानव तस्करी को लेकर गंभीर होता नहीं दिखाई दे रहा है। यूनाइटेड नेशंस ऑफिस ऑन ड्रग्‍स एंड क्राइम (यूएनओडीसी) की ओर से जारी हालिया रिपोर्ट में इस स्थिति को खतरनाक बताया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, देश की राजधानी दिल्ली को लड़कियों की तस्करी का एक प्रमुख केन्द्र करार दिया है। पिछले कुछ महीनों में देश की राजधानी से छत्तीसगढ़ की लड़कियों के मिलने और गुम होने का सिलसिला जारी है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि राज्य सरकारें एकीकृत बाल संरक्षण योजना का बेहतर क्रियान्वयन और मॉनीटरिंग ठीक ढंग से नहीं कर पा रही हैं। राज्य सरकार की उदासीनता, गैर-जिम्मेदार और लापरवाही से पिछले पांच वर्षों से बच्चों की तस्करी बढ़ती ही चली जा रही है। जबकि बीते वर्ष राज्य सरकार के ऐसे गैरजिम्मेदारना व्‍यवहार पर सुप्रीम कोर्ट ने जमकर लताड़ लगाई थी और खरी खोटी भी सुनाई थी मगर उसके बाद भी राज्य सरकार बच्चों की तस्करी पर पहले की ही तरह लापरवाह बनी हुई है जो कि प्रदेश के लिए सबसे अधिक चिंता का विषय है।
 
राज्य सरकार ही जब लापरवाह है तो प्रशासन भी सुस्त व ढीला बना हुआ है। छत्तीसगढ़ में गरीब व आदिवासियों के बच्चों को बहला फुसलाकर पांच सौ से एक हजार रूपए तक बयाना देकर दलाल अपने साथ ही लेकर चले जाते हैं और दुबारा आने पर बाकी की रकम देते हैं। दलाल इन गरीबों की गरीबी व भूखे पेट का लाभ लेते हुए इनके बच्चों को महानगरों में नौकरी व घरेलू काम काज कराने के बहाने लेकर जाते हैं और महानगरों के दलालों को तीस चालीस हजार रुपये में बेच देते हैं। जब तक इन गरीब निराक्षर आदिवासियों को कुछ समझ आता है तब तक में उनके बच्चे एक दूसरे दलालों के पास बिकते बिकते जाने कहाँ पहुंच जाते हैं जिन्हें तलाश कर पाना काफी मुश्किल हो जाता है। छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में स्थिति और अधिक भयावह है क्योंकि सरकार की योजनाओं का लाभ शायद ही असली हकदारों को मिल पाता है, उनके तक पहुंचते पहुंचते योजना में से भ्रष्टाचार के द्वारा सभी अपने अपने हिस्से की कटौती करते जाते हैं। असली हकदारों तक 100 में से 10 भी मिल जाए तो भी काफी है क्योंकि नक्सल प्रभावित इलाकों में अधिकांश योजनाओं में इतना अधिक भ्रष्टाचार हो जा रहा है कि असली हकदारों तक 100 में से 1 भी नहीं मिल पा रहा है। इस सबके बीच बच्चों की तस्करी करने वालों गिरोह के हजारों दलाल गांवों गांवों में घूम रहें हैं और गरीब आदिवासियों को अपना शिकार बना रहे हैं।

छत्तीसगढ़ से पिछले पांच सालों में 14,114 बच्चे गायब हो गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में राज्य सरकार को इन बच्चों को खोजने के लिए दिशा निर्देश भी दिए मगर सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश भी राज्य सरकार की कार्यप्रणाली में सुधार नहीं करवा पाई। विधानसभा में विपक्ष के नेता टीएस सिंहदेव के सवाल के लिखित उत्तर में गृह मंत्री रामसेवक पैकरा ने जवाब दिया कि प्रदेश में 2010 से अब तक 14 हजार 114 बच्चे गायब हैं। जिस अवधि के दौरान 14 हजार से ज्यादा बच्चे गायब हुए उसी अवधि में 19 हजार से ज्यादा वयस्क लड़कियां और महिलाएं भी छत्तीसगढ़ से गुमशुदा पाई गईं। लिखित उत्तर के अनुसार, वर्ष 2010 में 2757, वर्ष 2011 में 3187, वर्ष 2012 में 3384, वर्ष 2013 में 2907 और वर्ष 2014 में 1776 बच्चे गायब हुए। वहीं लड़कियों और महिलाओं की संख्या वर्ष 2010 में 3396, वर्ष 2011 में 3921, वर्ष 2012 में यह संख्या 3867, वर्ष 2013 में 4163 महिलाएं और लड़कियां गायब थीं तो वहीं वर्ष 2014 में यह संख्या 4263 और वर्ष 2015 में जवाब दिए जाने की तारीख तक 359 महिलाएं गायब थीं। देह व्यापार और घरेलू काम के लिए तस्करी 2010 से छत्तीसगढ़ से गायब होने वाले लोगों में लड़कियों और महिलाओं की संख्या आधिकारिक रूप से लगभग पांच हजार से भी अधिक है। राज्य के कई इलाकों में चल रही प्लेसमेंट एजेंसियों के जरिए इस वर्ग को टारगेट बनाया जा रहा है। भारी संख्या में ग्रामीण इलाकों ( जहां 833 मिलियन रहते हैं) से लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। पिछले एक दश्क में शहरी आबादी में 91 मिलियन की वृद्धि हुई है। यह आंकड़े जर्मनी और इजीप्ट की आबादी से भी अधिक है। इस अवधि के दौरान शहरी इलाकों की आबादी में ग्रामीण इलाकों के मुकाबले 2.5 अधिक तेजी से वृद्धि हुई है। बच्चों की संख्या में वृद्धि के साथ साथ उनके काम और शोषण के अवसर में भी इज़ाफा हुआ है।

ग्रामीण इलाकों से आती हैं लड़कियां संपन्न शहरों में
आज की तारीख में लगभग हर परिवार में घरेलू नौकरानियां होती हैं और शहरों की बढ़ती समृद्धि के साथ इनकी मांग बढ़ती ही जा रही है। बच्चों की तस्करी पर चाइल्ड लाइन की रिपोर्ट कहती है "घरेलू नौकरानियों की बढ़ती मांग के कारण पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ एवं झारखंड के गांव से बच्चों की तस्करी के मामलों में वृद्धि देखी गई है। लड़कियां पहले प्लेसमेंट एजेंसी लाई जाती हैं और वहां से घरों में भेज दी जाती हैं"। शहरी एवं ग्रामीण विभाजन के कारण किशोरी बच्चियों के लिए तस्करी का खतरा, घरेलू काम , बाल श्रम और यौन कार्य में अधिक बढ़ गया है।  एशिया फाउंडेशन के लिए स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय की 2010-2014 रिपोर्ट के मुताबिक "आर्थिक विकास के निम्न स्तर और उच्च स्तर दोनों ही अवैध व्यापार को प्रोत्साहित करती है, यानि राज्य विकास के साथ श्रोत से गंतव्य स्थान में परिवर्तित हो जाती है"।

पीडब्यूसी की रिपोर्ट के अनुसार 377 मिलियन भारतियों में से 32 फीसदी बच्चे 18 वर्ष से कम उम्र के हैं। इसके अलावा 8 मिलियन से अधिक बच्चे छह वर्ष से कम बच्चे 49,000 झुग्गी-बस्तियों में रहते है। इन आंकड़ों के अलावा कई बच्चे हैं जो गरीबी का जीवन जी रहे हैं लेकिन उनकी गिनती अधिकारिक रुप से गरीबों में नहीं होती क्योंकि हर रोज़ की आय 47 रुपए से अधिक है। 1992 की यूनिसेफ रिपोर्ट के अनुसार 15 से 18 मिलियन बच्चे झुग्गियों में रहते हैं। इन आंकड़ों से साफ है कि शहरी गरीब बच्चों की गिनती स्पष्ट नहीं है। रिपोर्ट में जिन 49,000 झुग्गियों का ज़िक्र किया गया है वह अधिकारिक रुप से गिने गए हैं। कई हज़ार बच्चे ऐसे हैं जिनकी गिनती नहीं की गई है। 2012-13 की जनगणना के अनुसार झुग्गी बस्ती में करीब 13.7 मिलियन लोग रहते हैं। क्राइम रिकॉर्ड की तफ्तीश बताती है कि ह्यूमन ट्रैफिकिंग के जाल में ग़रीब आदिवासी लड़कियां ही नहीं, मध्यवर्गीय परिवार भी फंस रहे हैं क्योंकि अक्सर उन्हें इस बात का पता ही नहीं चलता कि जो नौकरानी उनके घर काम कर रही है वो दरअसल ह्यूमन ट्रैफिकिंग की शिकार है। इसलिए, आप भी सावधान रहिए क्योंकि आपकी सावधानी ही ह्यूमन ट्रैफिकिंग के इस घिनौने ज़ुर्म को रोकने में मददगार साबित हो सकती है।


चाइल्ड राइटस एंड यू ( क्राई ) संस्था द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार देश भर में बाल श्रम 2.2 फीसदी की दर से कम हो रहा और यदि यही रफ्तार चलती रही तो शायद बाल श्रम को जड़ से हटाने में सदियों लग जाएगें। जानकारों के मुताबिक, लड़कियों और महिलाओं का उपयोग मेट्रो सिटीज के घरेलू कामों और देह व्यापार के लिए किया जा रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार का अभाव, मनरेगा की असफलता के चलते छत्तीसगढ़-झारखंड राज्यों के पिछड़े इलाकों के परिवार इनके झांसे में आ जाते हैं। एक बार इनके झांसे में फंसने के बाद शोषण का सिलसिला शुरू हो जाता है। पिछले सालों में ऐसी कई कहानियां निकलकर सामने आई हैं।

यदि आप यह सोच रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में मानव तस्करी का व्यापार अभी जोर पकड़ रहा है तो यह निश्चित ही आपकी भूल होगी। दुर्ग पुलिस सूत्रों के मुताबिक, यहां पर 40 साल पहले भी मानव तस्करी का धंधा जोरों पर था। धमतरी की एक महिला को पंजाब के एक व्यक्ति के हाथों बेच दिया गया था। अब वह महिला खुद को बेचने वाली महिला पर रिपोर्ट दर्ज कराना चाहती है। उस महिला ने खुलासा किया है कि केवल वही नहीं उसके साथ सात और महिलाओं को भी बेचा गया था। जिससे समझा ही जा सकता है कि राज्य सरकार ने बीते पांच वर्षों में बच्चों, लड़कियों और महिलाओं की तस्करी पर कितनी गंभीर है और कितने कारगर कदम उठाए हैं? बहरहाल यह सभी तथ्य आज भी सवाल बने हुए हैं कि आखिरकार छत्तीसगढ़ में सबसे बड़े स्तर के अपराधों पर राज्य सरकार इतनी अधिक लापरवाह व गैरजिम्मेदार क्यों है और कुंभकर्ण की नींद में क्यों सो रही है जिस नींद से राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट भी नहीं जगा पाया।

छत्तीसगढ़ में अगर आपका बच्चा खो जाए तो आप क्या करेंगे
आप कुछ नहीं कर पायेंगे क्‍योंकि राज्य सरकार व प्रशासन तो आज भी अपने पुराने ढर्रे पर चल रहा है। क्योंकि साल दर साल मानव तस्करी छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक बढ़ गई है। जिस पर फिलहाल राज्य सरकार तो कत्तई गंभीर नहीं है। जब सरकार ही गंभीर नहीं है तो प्रशासन का गंभीर न होना कोई आश्चर्यचकित करने वाली बात तो नहीं है। वैसे सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2014 में छत्तीसगढ़ की सरकार व उच्चाधिकारियों को लताड़ लगाई थी मगर सुप्रीम कोर्ट का यह प्रयास भी व्यर्थ चला गया क्योंकि वर्तमान स्थिति में विधानसभा में गृहमंत्री ने मानव तस्करी पर जो लेखा जोखा प्रस्तुत किया उससे स्पष्ट है कि राज्य सरकार को इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता जान पड़ा है कि छत्तीसगढ़ राज्य में मानव तस्करी के अपराध में लगभग 32 फीसदी का इजाफा हुआ है। पिछले पांच सालों की तुलनात्मक रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि छत्तीसगढ़ मानव तस्करी करने वालों के लिए सबसे बेहतरीन क्षेत्रों में से एक प्रमुख है, जहां पर बेहद आसानी से तस्करी का काम जोरों पर चल रहा है, सुदूर आंचलिक क्षेत्र तो मानव तस्करों के लिए गार्डन बना हुआ है जहां पर सबसे सस्ते व कम दामों में बच्चें, लड़कियां व महिलाएं मिल जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा जिलों में भी मानव तस्करी का धंधा जोर पकड़ता जा रहा है बावजूद इसके आज भी राज्य सरकार गंभीर नहीं है और लगातार उदासीनता व लापरवाह बनी हुई है।
पुलिस की पकड़ से दूर दलाल
कापू क्षेत्र में तस्करी की बढ़ती शिकायतों के बाद यहां कुछ समय पहले मानवाधिकार कार्यकर्ता अजय टीजी, डिग्री चौहान, अधिवक्ता रिनचिन, जगदीश कुर्रे, सुमीता केरकेट्टा, रीना रामटेके, फादर जैकब, आशीष बेक, विनय कुमार एक्का, आनंद स्वरूप, प्रेमसाय लकड़ा, शिशिर दीक्षित, याकूब कुजूर, लक्ष्मण महेश्वरी, धर्मेंद्र जांगड़े ने जनसुनवाई की कार्रवाई की थी और पुलिस को मानव तस्करों की गतिविधियों से अवगत कराया था, लेकिन पुलिस ने अब तक सुशील वर्मा उर्फ करोड़पति, महिला तस्कर संतोषी बाई, चंद्रवती, कमलाबती, फूलकुंवर, जर्नादन यादव और कृष्णा चौहान को गिरफ्तार कर जेल भेजा है। ग्रामीणों का आरोप है कि इलाके में मानव तस्करी के काम में लगे रमेश, मनोज, गिरधारी, विक्की, उमेश और जमानत पर रिहा हुए बबलू सिदार की आवाजाही फिर से बढ़ गई है। इलाके में रहने वाले नन्हे नाम के एक शख्स के बारे में ग्रामीणों का कहना है कि उसने रायगढ़ में पदस्थ रहे एक पुलिस अफसर को घरेलू कामकाज के लिए क्षेत्र से दो लोग दिलवाए थे। मानव तस्कर निरोधक प्रकोष्ठ के नोडल अधिकारी प्रदीप तिवारी ने कहा कि मानव तस्करी के मामलों में कापू को बेहद संवेदनशील माना जाता है। बावजूद इसके यदि यहां के पुलिसकर्मी मामलों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं तो उन्हें चेतावनी दी जाएगी।


छत्तीसगढ़ के पांच हजार से ज्यादा बच्चों और इंसानों को देश-विदेश में बेचने वाला गौरव साहा छह महीने से जशपुर जेल में बंद था, लेकिन अब वह जमानत पर है। तीन जिलों बलरामपुर, रायगढ़ और जशपुर में सक्रिय रहकर मानव तस्करी करने वाला गौरव चंपारण बिहार का निवासी है। गौरव को गिरफ्तार करने वाली कांसालबेल की थाना प्रभारी मल्लिका बनर्जी बताती हैं कि गौरव के गुर्गे गांव के बच्चे, भोले-भाले आदिवासी युवकों, युवतियों को उनकी जरूरतों के हिसाब से टारगेट बनाते हैं। अगर आपको याद हो तो वर्ष 2014 में भी सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की जमकर भर्त्सना की थी और मानव तस्करी पर दिशा निर्देश तक दिए थे। जिसका पालन न ही उस समय किया गया और न ही आज किया जा रहा है। प्रदेश में मानव तस्करी और बच्चों की गुमशुदगी के बढ़ते मामले पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर कार्रवाई नहीं करने के लिए कोर्ट ने प्रदेश के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को 30 अक्टूबर 2014 को तलब किया गया था। मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने राज्य सरकारों के ढीले-ढाले रवैये पर सख्त फटकार लगाने के बावजूद भी राज्य शासन व प्रशासन की कार्यप्रणाली में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने उस समय कहा, क्या बच्चों के माता-पिता जितनी चिंता हमें भी होती है? क्या राज्य के मंत्री व उच्चाधिकारियों के बच्चे भी खो जातें हैं तब भी यही रवैया रहता क्या? सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में दिए गए निर्देशों का पालन नहीं करने पर कहा था कि राज्यों ने इस मामले को अदालत में तमाशा बना दिया है और राजनीतिज्ञों ने मजाक बना दिया है। तत्कालीन जस्टिस एच.एल. दत्तू, जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस ए.के.सीकरी की बेंच ने दोनों राज्यों के अधिकारियों के पेश होने पर खरी खोटी सुनाई थी और आदेश भी दिया था कि राज्य की सरकार को इन मामलों पर गंभीर होना चाहिए मगर छत्तीसगढ़ व बिहार की सरकारें तो बच्चों की तस्करी पर सो रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश में छत्तीसगढ़ व बिहार सरकार की ओर से जवाब नहीं देने को लेकर नाराजगी जतायी थी और मुख्य सचिव को नोटिस भेजकर कोर्ट में उपस्थित होने के आदेश दिए थे तब कहीं जाकर मुख्य सचिव कोर्ट में पेश हुए थे। कोर्ट ने पेशी के दिन प्रश्न भी किया था कि बताएं कि उन्होंने लापता बच्चों के मामले में दिए गए निर्देश का पालन क्यों नहीं किया? जिस पर मुख्य सचिव ने वादा किया था कि पुनः से ऐसा नहीं होगा क्योंकि चुनाव के चलते प्रशासन से थोड़ी सी चूक हुई थी। कोर्ट ने दूसरे राज्यों के भी दो शीर्ष प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों को तलब करके फटकार लगाई थी। देश की सर्वोच्च अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा था कि बच्चों के लापता होने पर यांत्रिक तरीके से जवाब दाखिल करने और जमीन पर कुछ नहीं करने का तामाशा बंद होना चाहिए। क्या राज्य की सरकारों को यह उचित लगता है कि उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों पर सुप्रीम कोर्ट को जवाब तलब करना पड़ा है, क्या राज्य के बच्चों की सुरक्षा सुप्रीम कोर्ट निभाएगी या निर्देश देगी तब ही हरकत में आएंगे अन्यथा कुंभकर्ण की नींद में गोते लगाते रहेंगे। क्या राज्य की सरकारों की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं होती है या सिर्फ राज करने के लिए ही राजनीति की जा रही है? उस समय स्पष्ट रूप से कोर्ट ने आदेश दिया था कि बच्चों के गायब होने पर अब भी उदासीनता बरती गई तो राज्य के कानून मंत्री, डीजीपी और मुख्य सचिव जवाब देने के लिए तैयार रहें। कोर्ट ने यह आदेश एनजीओ "बचपन बचाओ आंदोलन" की तरफ से दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा था। क्योंकि एनजीओ ने कहा था कि लापता बच्चों का पता लगाने में राज्य की सरकारें पूरी तरह नकारा साबित हुई है और मंत्रियों व प्रशासनिक अधिकारियों की तरफ से उठाए गए अपर्याप्त कदम पर यह याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट को सख्त नाराजगी इसलिए थी क्योंकि याचिका दाखिल करने के बाद से लेकर एक वर्ष के दौरान भी राज्य सरकार, मंत्रियों, सचिवों व प्रशासनिक अधिकारियों की कार्यशैली में कोई सुधार नहीं आया था।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 
सुप्रीम कोर्ट में याचिका 18 जनवरी 2013 को बचपन बचाओ आंदोलन नामक संस्था ने दायर की थी जिसमें देश में 2008 से लेकर 2010 के बीच 1.70 लाख से अधिक बच्चे गुम हुए, इनमें से अधिकतर का देह व्यापार और बाल मजदूरी के लिए अपहरण किया गया। उस समय तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर, न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर और न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन की बेंच में सुनवाई शुरू हुई थी। जिसमें कहा गया था कि -      

(1) बच्चों के गुमशुदा होने के हर मामले में अनिवार्य रूप से प्राथमिकी दर्ज हो। प्रत्येक मामले की पुलिस जांच करे।
(2) हर थाने में किशोरों के मामलों को देखने के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त हो। मकसद था बाल अपराधियों के मामलों से कारगर तरीके से निपटाना।
(3) किशोरों से जुड़े मामलों के लिए हर जिले में अनिवार्य रूप से विशेष रूप से प्रशिक्षित पुलिस अधिकारियों की इकाई गठित हो।
(4) बच्चों से जुड़े मामलों की जांच के लिए थानों में तैनात ऎसे अधिकारी सादे कपड़ों में होंगे। वे बाल कल्याण समिति के साथ तालमेल के साथ काम करेंगे।

16 मार्च 2012 : केंद्र व राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों से सुप्रीम कोर्ट ने जवाब तलब किया। कई राज्यों ने जवाब नहीं दिए । कोर्ट ने अंतिम अवसर देते हुए 5 फरवरी 2013 तक की मोहलत दी जिसमें हिदायत दी गई थी कि जवाब दाखिल न करने पर मुख्य सचिवों को व्यक्तिगत रूप से हाजिर होकर कोर्ट को बताना होगा "उपस्थित न होने का कारण"।

5 फरवरी 2013 : लापता बच्चों पर राज्य सरकारें स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने में विफल रहीं। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा, ऎसा लगता है कि किसी को बच्चों की चिंता नहीं है। अदालत को राज्य मूर्ख बना रहे हैं। इन सभी के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी करने की धमकी दी थी।

30 अगस्त 2014 : सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को पूर्व में जारी अपने निर्देशों के अनुपालन में अलग से शपथ-पत्र दायर करने को कहा था जिसमें हिदायत दी गई थी कि जैसे ही बच्चा लापता होने की सूचना मिले वैसे ही अनिवार्य प्राथमिकी दर्ज हो।


छत्तीसगढ़ पूरे देश में मानव तस्करी के लिए बदनाम है। हर साल यहां से हजारों लड़कियां तस्करों के चंगुल में फंस जाती हैं। लेकिन पुलिस के आंकड़ों में सच्चाई सामने नहीं आ पाती। यही वजह है कि वर्ष 2010 से 2012 के बीच गुमशुदगी की हजारों शिकायतों के बावजूद मानव तस्करी के महज 44 मामले ही दर्ज किए गए। वर्ष 2010 में 13 शिकायत, वर्ष 2011 में 18 और वर्ष 2012 में 13 शिकायतें दर्ज हुई थी। जिस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर स्थिति इतनी अच्छी है तो बच्चे, बालिकाएं और महिलाएं क्या अपने आप ही गायब हो जा रही हैं। मगर सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद भी राज्य पुलिस के रवैये में फर्क नहीं आया है। जबकि पूर्व केंद्रीय महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री कृष्णा तीरथ ने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की थी वह पूरी तरह पुलिस के झूठ को उजागर करते हैं।
           गुमशुदगी के आंकड़ें 
पूर्व केंद्रीय महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री कृष्णा तीरथ ने पिछले साल 11,536 बच्चों के छत्तीसगढ़ से गायब होने की जानकारी दी थी। 2,986 बच्चों के सम्बंध में अब तक कोई जानकारी नहीं। 11,225 बच्चे लापता, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार  6,525 बच्चों के गायब होने की शिकायत पहुंची छत्तीसगढ़ लोक आयोग में (आंकड़े अप्रैल 2011 से मार्च 2014 तक).

छत्तीसगढ़ के एक बड़े हिस्से से बच्चे लापता होते हैं। लापता बच्चों शिकायतों पर खोजबीन और एफआईआर दर्ज करने के मामले में आयोग लगातार दबाव बनाए हुए है, लेकिन पुलिस प्रशासन जरा भी संवेदनशील नहीं है। यदि ऎसा होता तो सुप्रीम कोर्ट की ओर से नोटिस जारी नहीं होता। - शताब्दी पांडेय, अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ बाल अधिकार