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कानपुर - जारी है फर्जी बनाम असली पत्रकारों की जंग

कानपुर 29 मई 2015. औद्योगिक नगरी कानपुर और मेरा रिश्ता मेरे जन्म के साथ जुडा है। बडा अफसोस होता है कि आजकल कानपुर में यह रीत बन गई है कि सडक के किनारे कुछ पुलिस कर्मी अपने साथ एक दो पत्रकारों को लेकर बैठ जाते हैं और वाहन चेकिंग के नाम पर केवल उन वाहनों को रोक दिया जाता है जिन पर प्रेस शब्द लिखा हो। उनके वाहन के कागजात देखने के बाद उनके प्रेस के आई कार्ड मांगे जाते है। उस व्यक्ति के आईकार्ड दिखा दिए जाने के उपरांत प्रथम दृष्टयः अगर वह किसी नामचीन अखबार से नहीं है तो तत्काल उसको फर्जी होने का प्रमाणपत्र निर्गत कर दिया जाता है।
यदि वह पत्रकार अपने संपादक से बात करवाता है तो भी ये लोग उसको फर्जी का प्रमाण पत्र निर्गत कर देते है और यदि उसने प्रसाद नहीं चढाया तो उसके साथ मारपीट की जाती है। मौका मिलने पर उसको बंद भी करवा दिया जाता है। यह अक्सर का हो गया है और सोशल मीडिया पर ऐसे फोटो और स्टेटस की भरमार है। यही हालत सभी पत्रकार वार्ताओं में भी होती है। कौन हो, कैसे घुस आये, किस बैनर से हो, ये कहां आता है, छपता भी है तुम्हारा अखबार फर्जी पत्रकार हो, बन्द कराओ इसको - ये सब जुमले रोज छोटे व मंझोले पत्रकारों को सुनने को मिलते हैं। अभी पखवारा गुजरा है कि एक पत्रकार वाहन चेकिंग में पकडा गया और वो किसी डकैती में संलिप्त पाया गया था। जाँच हुई और उसके साथ के दो साथी भी पकडे गए जो होमगार्ड थे। दूसरे दिन कप्तान साहेब ने एक आलीशान प्रेस कान्फ्रेंस में इस घटना और अपने गुड वर्क की खूब चर्चा की। बातचीत में मौखिक आदेश तक दे डाला कि अब पत्रकारों की एक संस्था के सदस्यों को साथ में लेकर प्रेस लिखी गाडियाें की चेकिंग की जायेगी और फर्जी प्रेस लिखी गाडियो पर कडी कार्यवाही होगी। फिर क्या जिनकी चांदी काटने की उम्मीद जगी उन्होंने इस मौखिक आदेश को मोटी सुर्खियां प्रदान कर दी। मैं इस आदेश के विरोध में आया क्यांेकि मुझको इसका साइड इफेक्ट पता था। इससे विशेष संगठन के चंद लोग सभी छोटे और मंझोले मीडिया हाउस के पत्रकारों को फर्जी करार दे देंगे फिर उनके साथ अभद्रता और उनका शोषण चालू हो जायेगा। मेरे विरोध का साथ मेरे संगठन ने भी दिया और हम इसके विरोध में विधानसभा घेरने और गृह मंत्री को ज्ञापन देने की तैयारी करने लगे। तब तक कप्तान साहेब ने इस प्रकार के आदेश देने से इनकार कर दिया। जबकि उस प्रेस कांफ्रेंस में मेरा भी पत्रकार मौजूद था। ठीक कप्तान साहेब के बगल में कुर्सी डाल लगभग फैल के बैठे हुए अंगडाई लेते उक्त संगठन के एक करता धर्ता महोदय का आदेश के समय खिला चेहरा बहुत कुछ बयान कर रहा था। खैर जब कप्तान साहेब ने ऐसा आदेश ही नहीं दिया तो हमने भी की आगे की रणनीति नहीं बनाई। मगर कानपूर जिस प्रकार से पत्रकारों के लिए कब्रगाह बनता जा रहा है उससे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ इस शहर में सबसे ज्‍यादा खतरे में है। आज मेरे पास कई ऐसे सवाल है जिसका जवाब शायद प्रशासनिक तंत्र के पास भी न हो। सबसे बडा प्रश्न यह है कि आखिर इन छोटे मंझोले पत्रकारों पर सबसे अधिक हमलों की वारदात जूही, बर्रा और किदवई थाना क्षेत्र में ही क्यों होती हैं। आखिर कौन सा ऐसा नियम है जिसके तहत छोटे और मझोले मीडिया हाउस के पत्रकारों को खुद को पत्रकार कहने का अधिकार नहीं है। कप्तान साहेब आइये कुछ नियमों की बात कर ली जाय। पत्रकार जो किसी भी मीडिया हाउस से जुडा है और उसको ऑथरिटी लैटर जारी हुआ है तो प्रेस नियमावली के तहत उसके खिलाफ बिना अपराधिक कारणों से पत्रकार होने न होने की जाँच एलआइयू के द्वारा होती है जिसमें जिला सूचना कार्यालय की भी रिपोर्ट लगती है। प्रश्न यह है कि आपकी पुलिस या आपका कथित वरदहस्त प्राप्त कोई पत्रकार संगठन आखिर कैसे 2 मिनट में यह साबित कर देता है कि ये पत्रकार है या नहीं है। यदि यह इतना आसान है तो फिर आप तत्काल इसकी सूचना सरकार को दे और सरकार इन दोनों विभागों को खत्म करके ये कार्य प्रदेश स्तर पर आपके अधिनस्थोें को प्रदान कर दें। प्रतिवर्ष करोडोें रुपया सरकार इस दो विभागों पर खर्च करती है। ये पैसे बच जायेगे और फिर उसी पैसोे से जनता की कुछ भलाई की परियोजना चलाई जा सकती है। हम मीडिया वाले अपने वाहन पर प्रेस लिख कर चले और कोई काबुल की इस आबादी में एक आध घोडो के बीच में गधा निकल गया तो यह स्थिति है कि सबको कटघरे में खडा किया जा रहा है।सरकार जरा अपने अधिनस्थों के क्रियाकलाप पर भी निगाह दौडा लीजिये सर। अभी एक दरोगा ने अपनी पत्नी के टुकडे कर दिए आपके जिले में। इससे क्या सबक लेते हुवे आप सभी दरोगाओं के परिवार की जाँच करवा रहे है क्या कि ऐसा कोई और तो नहीं है जिसके परिवार में ऐसा तनाव है। उसी पत्रकार के साथ 2 होमगार्ड भी पकडे गए हैं। आपके शहर में क्या पूरे प्रदेश में कई अपराधिक घटनायें ऐसी हुई है जिसमें होमगार्ड के जवान पकडे गए है। आप इस विभाग की भी जांच करवा रहे है क्या सर। अभी कानपुर में आईजी ऑफिस में तैनात एक कांस्टेबल के बेटे ने लूट की थी एक व्यापारी के साथ पकडा गया प्रेस कांफ्रेंस में खुलासा भी हुआ। जो पत्रकार के प्रकरण में हुआ यदि उसकी बराबरी की जाये तो आपको प्रत्येक कांस्टेबल कें बच्चों की जांच करवाना चाहिए की पुलिस के बेटे के आड में कोई और अपराधी तो नहीं छुपा है। हम पत्रकार अगर अपने वाहनों पर अपनी पहचान लिखते है तो बडी आपत्ति आती है। चलिए सर नियमों की भी बात कर लिया जाये अब। नियमावली हमको इसकी अनुमति देती है कि हम अपने निजी वाहन पर अपनी पहचान लिख सकते हैं। परंतु कप्तान साहेब एक नियम और भी है थोडा उसपर भी ध्यान दे लिया जाये। पुलिस नियमवाली के अंतर्गत किसी भी निजी वाहन अथवा निजी भवन पर अथवा निजी कार्यालय पर पुलिस का मोनोग्राम नहीं लग सकता है। अब इस नियम को धरातल पर उतर कर देखते है। आज सडकों पर ऐसे वाहनों की भीड है जो आगे पीछे पुलिस का मोनोग्राम और पुलिस लगाये घूम रहे है। अगर इनकी गिनती की जाये तो आपके पुरे जनपद में तैनात आपके सम्पूर्ण अधिनस्थो से दोगुने निजी वाहन सडक पर हैं। कप्तान साहेब नियमों को मुह चिढाते हुवे आपके अधिनस्थों ने टेम्पों तक पर पुलिस का मोनोग्राम लगा बैठे। आखिर कौन सा ऐसा नियम है जिसके तहत आपके अधीनस्थ खुद के तो छोडिये साहेब अपने रिश्तेदारों के भी वाहन पर पुलिस लिखवा बैठे है। नियमावली तो आपको भी अनुमति नहीं देती है कि आप खुद के निजी वाहन पर पुलिस अथवा पुलिस का मोनोग्राम लगवा सकते है तो फिर आपके अधिनस्थ किस नियमो के तहत यह करते है समझ के परे की बात है। गांधी जी को दो गोलियों से मारा जा सकता है मगर उनके विचारो को कभी नहीं मारा जा सकता है। अपने कार्यालय में गांधी जी की फोटो लगाने से बेहतर होता है कि उनके विचारों का सम्मान दिल में रखा जाये। शाब्दिक नहीं बल्कि सच्चाई के साथ उनके संदेशो को जीवन में स्थान दिया जाये। आप समाज को सुरक्षा प्रदान करने वाले तंत्र से जुडे हैं। आपको देख कर समाज शिक्षा लेता है। आपका अनुसरण करता है आपको तो एक मिसाल कायम करना चाहिए। कुछ भी हो मगर निष्कर्ष यह है कि कानपूर के एक पत्रकारांे का संगठन है जिस के कुछ पत्रकार जो खुद केे बडे बैनर का पत्रकार होने का नाजायज फायदा उठाते हुवे कानपूर प्रशासन का सहयोग लेकर वहां के छोटे और मझोले तबके के मीडिया हाउस के पत्रकारों को निष्पक्ष काम नहीं करने देते हैं। अगर उनके दबाव में काम नहीं करता ये छोटे और मझोले मीडिया हाउस का पत्रकार तो ये उनको फर्जी पत्रकार करार देकर उनका अपमान और मारपीट कर उसको झूठे मुकदमों तक में फंसा देते है। ऐसा एक प्रकरण भी मेरी नजर में है जिसमें एक टीवी चेैनल के पत्रकार ने भू-माफियाओ के विरोध में समाचार चलाया और उसपर जानलेवा हमला भी हुवा। ये तो उस पत्रकार की एक जबरदस्त जुझारू क्षमता है कि वो चाकू लगने के बाद भी जिंदा बच गया। उसके शब्दों को सही मना जाये तो पुलिस महानिदेशक के आदेश के बाद भी आज तक इस प्रकरण में मुकदमा कायम नहीं हुवा उलटे ऐसे ही चंद स्वयंभू ने उसको ले देकर हल कर लेने की सलाह दी। जब वह नहीं माना तो उसी के ऊपर झूठा मुकदमा कायम हो गया। ये हालात है कप्तान साहेब आपके अधिनस्थों की। आपके शहर में लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ की आजादी का गला घोंटा जा रहा है और आप खामोश हैं। इससे इन पत्रकारों में भीतर ही भीतर बडा आक्रोश पनप रहा है जो किसी दिन किसी बडे विवाद का कारण बनेगा।

(इस लेख के लेखक तारिक आजमी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं व आल इंडिया रिपोर्टर एसोसिएशन (आइरा) के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)