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मोदी के यू-टर्न से असम में बैकफुट पर बीजेपी

गुवाहटी। गुजरते वक्‍त के साथ असम में सत्ता हासिल करने की बीजेपी की उम्मीदें कम होती जा रही हैं। इसकी एक वजह यह है कि सार्क में अपनी हैसियत बढ़ाने के लिए मोदी सरकार ने बांग्लादेश के साथ लैंड ट्रांसफर डील पर आगे बढ़ने के संकेत दिए हैं। पर अगर बीजेपी असम के विधानसभा चुनाव में पिछले लोकसभा चुनावों जैसा परफॉर्मेंस दोहराती, तो वह 126 सदस्यों वाली इस विधानसभा में तकरीबन आधी सीटें जीत सकती थी।
असम नॉर्थ-ईस्ट के उन 5 राज्यों में शामिल हैं, जहां कांग्रेस पार्टी की सरकार है। यूपीए सरकार के दौरान सितंबर 2011 में बांग्लादेश के साथ इस लैन्‍ड डील पर दस्तखत हुए थे। इसके मुताबिक, असम का कुछ हिस्सा इस पड़ोसी देश को दिए जाने की बात है। असम के उन वोटरों के लिए यह काफी जज्बाती मसला है, जिन्होंने 1979 से 1985 के दौरान बांग्लादेश के अवैध प्रवासियों के खिलाफ हुए आंदोलन में शिरकत की। दिलचस्प यह है कि लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने भी इस मसले को काफी भुनाया। एक और अहम बात यह कि ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी किनारे के आसपास रह रहे लोग बड़ी नदियों से जुड़े डैम मसले पर बीजेपी के यू-टर्न से नाराज हैं। पार्टी के राज्य नेतृत्व ने सिविल सोसायटी और स्टूडेंट्स संगठनों के साथ अरुणाचल प्रदेश में 2,000 मेगावॉट के सुबंसिरी हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्रॉजेक्ट के कंस्ट्रक्शन के खिलाफ आंदोलन में हिस्सा लिया था। हालांकि, अब वे इससे अलग हो चुके हैं, जिससे राज्य के कई नागरिकों को तीसरे फोर्स की तलाश पर मजबूर होना पड़ा है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या राज्य में 10 साल तक राज कर चुकी पार्टी असम गण परिषद (एजीपी) अब कांग्रेस-विरोधी और बीजेपी-विरोधी वोट बैंक को एकजुट करने में कामयाब होगी। 2014 के लोकसभा चुनावों में एजीपी का वोट बैंक काफी हद तक बीजेपी की तरफ शिफ्ट कर गया और पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाई। राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के खिलाफ विधायकों का एक तबका दो साल से नाराज चल रहा था, जिससे पार्टी ने हाल में रिकवरी की है। गोगोई अपने पारंपरिक वोट बैंक (अली, कुली, बंगाली) को फिर से पार्टी की तरफ खींचने के लिए कोशिश में जुटे हैं। अली और कुली से मतलब चाय बगानों में काम करने वाली जनजातीय समुदाय के लोग और मुसलमान हैं। जनवरी में राज्य मंत्रिमंडल में फेरबदल के जरिये कई नाराज विधायकों को संतुष्ट करने की कोशिश की गई और सीएम के कुछ समर्थकों पर कैंची चलाई गई। हालांकि, मंत्रिपद से हटाए गए नेताओं को कैबिनेट रैंक का दर्जा देते हुए अन्य जगहों पर भेजा गया, ताकि बगावत के एक और दौर को रोका जा सके। इन तमाम कोशिशों के बावजूद गोगोई के लिए राज्य में पार्टी को एक और जीत दिलाना आसान नहीं होगा। कुल मिलाकर, चुनाव से एक साल पहले असम में बीजेपी फायदेमंद स्थिति में नजर आ रही है, लेकिन कांग्रेस की हालत भी पिछले 10 महीने के मुकाबले बेहतर है। 

(IMNB)