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कानपुर - आज भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम है पनका, चंदे से बने पुल से बस वोट मांगने आते हैं नेता

कानपुर। कानपुर जिला मुख्‍यालय से मात्र 18 किमी दूर स्थित पनका गांव की कहानी काफी अजीबो-गरीब है। यहां नेता वोट मांगने तो आते रहे पर विकास के नाम पर यहां के निवासियों को मिला तो बस आश्‍वासन। आजादी के 48 साल बाद तक कालपी रोड से सटे इस गांव के लोगों को पुल के अभाव में गांव में ही सिमटकर रहना पड़ता था।
खासकर बच्‍चे तो पढ़ाई से बिल्‍कुल महरूम थे। ग्रामीणों ने कई बार अपने विधायक से लेकर सांसद तक और डीएम से लेकर मुख्‍य सचिव तक पांडु नदी पर पुल बनाने की गुहार लगाई, लेकिन किसी ने उनकी परेशानी नहीं सुनी। ऐसे में ग्रामीणों ने खुद पुल बनाने की ठानी और दो गांव के हर घर से सौ-सौ रुपए चंदा जुटाकर पुल का निर्माण कर दिया। मजे की बात यह है कि इसके बन जाने के बाद इसी पुल पर चढ कर नेता (जनप्रतिनिधि) चुनाव में वोट मांगने के लिए तो आते हैं, लेकिन कई बार शिकायत करने के बावजूद भी इस पर रेलिंग नहीं लगी। ऐसे में अब यह पुल हादसों को न्‍योता दे रहा है। बताते चलें कि कानपुर में पनकी थाना क्षेत्र के नेशनल हाइवे से करीब डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर बह रही पांडु नदी पर यह पुल बना है। यह पुल भले छोटा और संकरा हो, लेकिन 20 गांव के करीब 20 हज़ार लोगों के लिए आवागमन का साधन बना हुआ है। पनका, बनपुरवा, छेदेपुर, गंभीरपुर, कनालपुरवा, कैदा, भैलामउ, गढ़ाई, राजपुरवा, भोपालपुरवा और मैटकापुर जैसे कई गांव इसमें शामिल हैं। ग्रामीणों के अनुसार आज पुल की हालत जर्जर हो चुकी है। रेलिंग के अभाव में हमेशा हादसे होने का डर बना रहता है। पनका गांव निवासी राम कुमार तिवारी (90) के मुताबिक़, पनका और बनपुरवा गांव सैकड़ों वर्ष पुराने हैं। आज से पांच-छह दशक पहले इस नदी को पार करने के लिए या तो तैर कर पार करना पड़ता था या फिर नाव का सहारा लेना पड़ता था। बरसात के दिनों में करीब एक महीने तक कोई इस नदी के उस पार नहीं जाता था, क्योंकि तब नदी उफान पर होती थी। ऐसे में गांव के लोग जरूरत के सारे सामान इकठ्ठा करके रख लेते थे और गांव में ही रहते थे। महिलाएं तो महीने-दो महीने में एक बार इस नदी को पार कर अपने जरूरत के सामान खरीदने बाज़ार जाया करती थी। आज़ादी के 18 साल तक इंतजार के बाद 1965 में पांडु नदी के ऊपर लकड़ी का पुल बनाया गया, लेकिन यह पुल पानी बढ़ने के साथ बह जाता था। राम कुमार तिवारी के अनुसार, इस नदी पर पुल बनाने के लिए उस समय से लेकर 1990 तक बनने वाले हर सांसद और विधायक से गुहार लगाई गई और सब केवल आश्वासन देते रहे, लेकिन पुल किसी ने नहीं बनवाया। इसके बाद 1990 में इसको लेकर गांव में बैठक की गयी जिसमें पक्के पुल के लिए पूरे गांव से सहयोग करने के लिए कहा गया। रामकुमार के ही पास बैठे गांव के बुजुर्ग सुरेश चंद्र शुक्ला के मुताबिक़, उस समय बाज़ार भाव को देखते हुए हर घर से 100 रुपए चंदा तय किया गया। साथ ही यह भी कहा गया कि जो इससे ज्यादा चंदा या किसी और तरीके से सहयोग करना चाहे तो कर सकता है। उन्‍होंने बताया कि 1990 में पनका गांव की आबादी करीब चार हज़ार थी और 500 से ज्यादा घर थे। वहीं, बगल के गांव बनपुरवा की आबादी 500 के करीब थी और घरों की संख्या 150 के अधिक थी। उस दौरान जिससे जो सहयोग हो पाया, सबने किया। रामकुमार के मुताबिक़, 1990 में शुरू हुए इस पुल को तैयार होने में करीब पांच साल लग गए थे, जो 1995 में बनकर तैयार हो पाया था। उन्‍होंने बताया कि आज भी इस पुल में हुए खर्च के एक-एक पाई का हिसाब लिखा हुआ है, लेकिन वे उस हिसाब को मीडिया के सामने नहीं लाना चाहते। दूसरी ओर, इस पुल के तैयार होने से पनका गांव के साथ-साथ आसपास के करीब 19 गांव के लोग खुश तो बहुत हैं, लेकिन सरकार और जनप्रतिनिधियों की अनदेखी से बेहद नाराज हैं। राम कुमार ने कहा कि अब इस पुल से जनप्रतिनिधि चुनाव के समय वोट मांगने तो आते हैं लेकिन जीतने के बाद कोई करता कुछ नहीं।
पनका गांव के ही राजीव कुमार ने बताया कि पनका और आसपास के गांव कानपुर देहात के अकबरपुर लोकसभा क्षेत्र में आता है, वहीं विधान सभा बिठूर लगता है। यहां के सांसद बीजेपी के देवेन्द्र सिंह भोले हैं, वहीं विधायक सपा के मुनीन्द्र शुक्ला हैं। पनका गांव की वर्तमान आबादी छह हज़ार के आसपास है, जबकि वोटर तीन हज़ार से अधिक हैं। इतनी आबादी होने के बावजूद पूरे गांव में महज आठ हैंडपंप हैं। क्लास पांच के बाद अच्छे स्कूल में पढ़ने के लिए बच्चों को पुल पैदल पार करके दूर जाना पड़ता है। पनका गांव सहित आसपास के गांव में किसी भी अच्छे स्कूल का वाहन नहीं आ पाता है, क्‍योंकि जो पुल है वह संकरा है, उस पर चौपहिया वाहन नहीं गुजर सकते। गांव के युवाओं का कहना है कि लोकसभा के दौरान नरेंद्र मोदी के नाम पर बीजेपी सांसद देवेन्द्र सिंह भोले को जिताया गया था। उन्‍हें उम्मीद थी कि मोदी एक अच्छे शासक साबित होंगे और वर्षों से चली आ रही रूढ़िवादी प्रथा को तोड़ते हुए हर सांसद को अपने संसदीय क्षेत्र में जाने का आदेश देंगे और सांसद विकास से वंचित हर गांव का जायजा लेंगे। हालांकि, यह सब ढकोसला साबित हुआ। स्‍थानीय सांसद को न्‍योता देने के बाद भी वे गांव में नहीं पहुंचे। राजीव त्रिपाठी (75) बताते हैं कि जब यह पुल नहीं था तो करीब आठ किलोमीटर  घूमकर बाजार के लिए निकलना पड़ता था। पुल के बन जाने के बाद काफी आराम है, लेकिन अब देख-रेख के अभाव में पुल जर्जर हो रहा है। रेलिंग न होने की वजह से अक्‍सर हादसे होने का डर रहता है। कई बार तो लोग नदी में गिर भी चुके हैं। 
(बलवन्‍त सिंह)